यह सृजन है या सृजन के नाम पर अभिशाप है ,
अर्ध्य देते आ रहे हम अर्चना का !
कब हुआ अहसास उनको वेदना का !
स्वप्न ही देकर विरासत चल दिए ,
कब हुआ अहसास उनको कल्पना का !
आग में हमको जलाकर कह रहे कंचन बनोगे ,
भावना से भ्रमित बुद्धि जिंदगी का श्राप है !
स्वार्थ का बहरुपियापन रच रहा प्रवंचना ,
ॐ बनकर जी रही आज जग आराधना !
प्रकृति का बनकर पुजारी स्वयं को ही छल रहा ,
पूर्व बलि के हो रही हो सृष्टि की ज्यों वेदना !
सृष्टिकर्ता ही बना हो मृत्यु का हथियार जब ,
मृत्यु है जीवन वहां पर ,जिंदगी अनुताप है !
अर्ध्य देते आ रहे हम अर्चना का !
कब हुआ अहसास उनको वेदना का !
स्वप्न ही देकर विरासत चल दिए ,
कब हुआ अहसास उनको कल्पना का !
आग में हमको जलाकर कह रहे कंचन बनोगे ,
भावना से भ्रमित बुद्धि जिंदगी का श्राप है !
स्वार्थ का बहरुपियापन रच रहा प्रवंचना ,
ॐ बनकर जी रही आज जग आराधना !
प्रकृति का बनकर पुजारी स्वयं को ही छल रहा ,
पूर्व बलि के हो रही हो सृष्टि की ज्यों वेदना !
सृष्टिकर्ता ही बना हो मृत्यु का हथियार जब ,
मृत्यु है जीवन वहां पर ,जिंदगी अनुताप है !
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