रविवार, 21 दिसंबर 2014

सब एक दूसरे को छल रहे हैं

तुम्हारा ये प्रश्न -
गाँव की अमराइयां कहाँ गयी !
बैठकर जहाँ पर,
अपनत्व की छाँव में ,
मिटा लिया करते थे अपनी थकान ,
कैसे बदल गए पक्की कोठियों में 
कच्चे मकान !
* * * * * * * * *
मित्र -
तुम विदेश जा बसे हो !
तुम्हारे अन्दर औपचारिक अपनत्व शेष है !
हमारे लिए ,
यही क्या कम एहसान है ,
तुम्हारा यह पत्र ,
इसका प्रमाण है !
तुमने पूछा है !
सत्य बताये देता हूँ !
किस्सा तो लम्बा है !
सक्षेप में सुना देता हूँ -
इस देश में ,
एक व्यापारी आया था ,
अपने साथ अविवाहित ,
अत्यंत लुभावनी
तीन कन्यायें लाया था ,
बड़ी "प्रगति " थी !
हमें मूर्ख,अनपढ़ गंवार बताती थी ,
सुख ,सुविधाओं के नए- नए ,
सपने दिखाती थी !
मंझली ,
आधुनिकता थी ,
जिसने ,अपने आप को
अजब तरह से सजाया था !
अपने अधरों पर अमृत बताया था !
सबसे छोटी ,
नटखट ,व्यवहार में खोटी ,
नीति थी
अशरीरी
केवल प्रतीति थी !
यहाँ आकर ,
सबको टोहने लगी !
अपनी अदाओं से ,
सबको मोहने लगी !
कन्यायें धन की दीवानी थी ,
तीनों पर चढी जवानी थी ,
लोग धीरे-धीरे इनके दीवाने हुए,
बेटे ,बाप से ,
भाई ,भाई से बेगाने हुए !
सबके सब,
इनके चक्कर में आ गए ,
प्रेमांध ,
आपस में टकरा गए !
तीनों प्यासी हैं ,
इनकी प्यास नहीं बुझती ,
कौन ,शहर गाँव है
जहाँ य़े नहीं मिलती !
इन्होने हर नौजवान को बिगाड़ दिया है ,
राम-कृष्ण ,
सीता,राधा के देश को,
इन सूर्पनखाओं ने उजाड़ दिया है !
चारों ओर,
"वयं रक्षाम: " का शोर लगता है ,
फिर से इस देश में
शुक्र शिष्यों का जोर लगता है !
आजकल सब ,
इनकी चर्चाओं में जीते हैं ,
इनके विरह में ,
सोम रस पीते हैं !
जो भी कराता है इन दीवानों को
दीवानगी का बोध ,
मिलकर करते हैं,
वे सब उसका विरोध !
उस स्पष्टवादी -मुंहफट को
वे लोग सांप्रदायिक बताते हैं ,
प्रदर्शन करते हैं ,
झंडे-डंडे उठाते हैं !
ये कन्यायें ,
झोंपड़ी में नहीं रहती !
इनके लिए मकान पक्के बन रहे हैं ,
बोये जा रहे हैं बबूल
आम कट रहे हैं !
* * * * * * * * *
तुमने भी तो
इसी कारण गाँव छोड़ा था !
हम गंवारों से ,
अपना मुख मोड़ा था !
शायद विदेश से ,
दिल भर गया है ,
या कोई नासूर ,
घर कर गया है !
एक बार स्वयं आओ ,
हम कितने बदल गए हैं देख जाओ !
हमें हमारी संस्कृति,
बाहर वाले बताते हैं !
अपनी सभ्यता की पुस्तक
हम विदेशों से मंगाते हैं !
हिन्दुस्तान में ,
हिन्दू शब्द गाली है -
खेत को खा रहा ,
खेत का माली है !
कुछ पुरातन पंथियों की आवाज़ ,
नक्कार खाने में तूती की तरह ,
कोई नहीं सुनता ,
रेडियो-टी.वी. ,पत्र समाचार ,
सबका यही है विचार ,
सब ठीक-ठाक है ,
स्थिति नियंत्रण में है !
हमारा भला ,
विदेशी निमंत्रण में है !
गांधीजी के तीन बंदरों के ,
भावार्थ बदल गए हैं ,
न सुनने ,देखने,बोलने में भला है ,
जीवन शांत जीने की यह एक कला है !
हम जैसे कुछ लोग ,
बैठे हाथ मल रहे हैं !
सब एक दूसरे को छल रहे हैं !
* * * * * * * * *
भैया ,
ऐसे प्रश्नों से ,
मेरा दर्द न कुरेदा करो !
उत्तर के लिए विवश कर,
मेरा मर्म न भेदा करो !!

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