रविवार, 21 दिसंबर 2014

भटक रहा हूँ .

मैं युग-युग से भटक रहा हूँ ! 
जिज्ञासा को प्रश्न बनाकर 
प्रतिउत्तर सौ उत्तर पाकर 
अभी नहीं संतुष्ट हुआ हूँ 
मैं युग-युग से भटक रहा हूँ ........ 
जैसा जो करता भरता है ! 
पाप-पुण्य संचित करता है ! 
कौन परीक्षा,क्या अंतर है 
स्पष्ट नहीं कोई करता है !
कर्म जहाँ है ,फल है निश्चित
है क्रिया सभी प्रतिक्रिया
फिर पूजा यह कर्म-कांड क्या
बदल नहीं सकता जब किंचित
मेरी चाहत अंत खोजकर
जो जाने वह संत खोजकर
संतुष्टि को जिज्ञासा को
मैं युग-युग से भटक रहा हूँ ....
कुछ कहते चातक पागल है
व्यर्थ कूकती बन कोयल है
चातक व्यर्थ विरह सहता है
व्यर्थ सीप ,स्वांति कायल है
भौंरे का झूठा है गुंजन
मधु-मक्खी की झूठी भिन्न-भिन्न
सत्य नहीं निर्झर की कलकल
धरती-अम्बर का आलिंगन
इसको सत्य मर्म कहते हैं
कुछ जीवन को भ्रम कहते हैं
निराकार-साकार पूजकर
हो त्रिशंकु सा लटक रहा हूँ .....
मैं क्या हूँ जब से यह सोचा
मुझे नए प्रश्न ने कोंचा
क्या होता "मैं" मृत शरीर में
अभी नहीं उत्तर तक पहुंचा
"मैं" जो भी हो देह नहीं है
नहीं विरक्ति नेह नहीं है
भाव चार से तीन गुणों से
पञ्च ज्ञान से ज्ञेय नहीं है
बैठ गया हूँ मैं अब थक कर
राह एक अपने मन चुनकर
तू तो एक माध्यम भर है
भ्रम चेतन का पाला क्यों कर
जिसकी है जिज्ञासा उसको
दे अपने को भटक रहा हूँ ...........

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