रविवार, 21 दिसंबर 2014

अनुबंध !

तन का हो ,
मन का हो ,
या बुद्धि का ,
साज ,संवार ,निखार
बहुधा अपने लिए नहीं होता ! यह सब प्रतीक है ध्यानाकर्षण का , हमारी बिकाऊ प्रवृत्ति का ....
प्रगति के नाम पर,
गाँव ,
शहरों की ओर दौड़ रहा ,
खेत -खलिहान
रिश्ते नातों को छोड़ रहा है ! करियर की धुन में ,
लग गया है घुन -तन में ,मन में , एक तरफ बीबी कमाऊ चाहिए ,
तो दूसरी ओर
मियां ऊंचे दामों पर बिकाऊ चाहिए , दोनों बिक रहे हैं ,
दफ्तर बाज़ारों में ,
दासता की हाट में ,
धन के विचारों में /
आज के रिश्तों में ,
धन के बंध हैं ,
आपस के सम्बन्ध
केवल अनुबंध हैं !
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हम ,
व्यवहार में भौतिकवादी हो गए हैं याने आचरण से शहरी हो गए हैं / शहरी सम्बन्ध निबाहे जाते हैं तन की तंदरुस्ती तक ,
साब के दाब तक ,
पद के रौब तक /
स्वार्थ के ख्वाब तक / वर्तमान में कहीं खो गए हैं वे भोले रिश्ते ,
जो जुड़े रहते थे ,
सांसों से सांसों तक , श्वांसों के बाद तक /
कहाँ खो गया
अनटूटे /
अपरिवर्तित /
भरे-पूरे परिवार का सपना // दीवारें भले टूटी थी
खपरेल भले फूटे थे ,
किन्तु -
हर ख़ुशी हर गम में
ज्यादा में /कम में
साथ निबाहा था हमने /
पर अब प्रगति के नाम पर
और छलकते जाम पर
शहर बनाने में जुटे हैं ,
पता नहीं कुछ पाया है
या अपने पास का भी गँवा कर
आज हम अब लुटे लुटे हैं /

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