रविवार, 21 दिसंबर 2014

"मौन स्वर "

गूंज रहा अपरिभाषित मेरे उर में कोई स्वर 
मन आकुल व्याकुल लगता है 
विश्वास नयन पंगुल लगता है !
दिशाओं में मौन मुखर है 
नभ मुझको खंखल लगता है !
इस शरीर में रहकर भी कुछ अलग अलग यूँ गीत ,
अर्थहीन शब्द खोजता कैसे जुड़ गए अधर !
मृदु मुस्कान अधर पर रखकर !
अभिव्यक्ति बन जाती छुपकर !
सत्य जानकर भी विछोह का ,
प्राण शेष आशा से भरकर !
जुड़ न पा रहा सांस-साँस से वृथा लगें प्रयास
स्पन्दनहीन ,स्वर विहीन ,ये घर हो जाना खँडहर !
क्यों विनती न जा ठुकरा कर !
क्या सपने में स्वप्न सजाकर !
जाना निश्चय आज नहीं कल ,
है जग में आना फिर फिर कर ,
बंधन -बंधन जप कर मान लिया है बंधन ,
झरकर नीचे आ जाता है ,चढ़ता जो अम्बर पर !

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